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Friday, September 20, 2024

उत्तराखंड में हरेला के जश्न के साथ शुरू होता है सावन, आप भी जानिए इस खूबसूरत पर्व की खास बातें

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उत्तराखंड में प्रकृति से जुड़े अनेक लोकपर्वों को मनाया जाता है. उत्तराखंड के में मनाया जाने वाला हरेला इन्हीं में एक खास लोकपर्व है. आज यानी मंगलवार को धूमधाम से हरेला मनाया जा रहा है. उत्तराखंड के लोक पर्वों में से एक हरेला को गढ़वाल और कुमाऊं दोनों मंडलों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है. वैसे तो हरेला सालभर में कुल तीन बार मनाया जाता है, लेकिन इनमें सबसे विशेष महत्व रखने वाला हरेला पर्व सावन माह के पहले दिन मनाया जाता है. हरेला क्यों मनाया जाता है, इसका भी अपना एक विस्तृत इतिहास है. लोक परंपराओं के अनुसार, पहले के समय में पहाड़ के लोग खेती पर ही निर्भर रहते थे. इसलिए सावन का महीना आने से पहले किसान ईष्टदेवों व प्रकृति मां से बेहतर फसल की कामना व पहाड़ों की रक्षा करने का आशीर्वाद मांगते थे. हरेला सावन के पहले संक्राद के रूप में मनाया जाता है. कुमाऊं में इसे हरियाली व गढ़वाल क्षेत्र में मोल संक्राद के रूप में जाना जाता है. हरेला की परंपरा बहुत पुरानी है. पहाड़ों में 16 जुलाई यानी आज से सावन शुरू होगा. सावन महीने में हरेला पर्व का विशेष महत्व है.

परंपरा के अनुसार पहाड़ के लोग अपने-अपने घरों में सावन मास शुरू होने से 10 दिन पहले हरेला बोते हैं. हरेला बोने की प्रक्रिया भी बेहद खास है. रिंगाल की टोकरी में तिमिल और मालू के पत्तों में हरेला बोया जाता है. टोकरी के ऊपर पत्तों को बिछाकर मिट्टी डाली जाती है, और मिट्टी में पांच या 7 तरह के अनाजों जैसे- जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट डालकर हरेला बोया जाता है. रिंगाल की यह टोकरी अगले कुछ दिन घर के भीतर अपने ईष्ट के थान यानी मंदिर के सामने रखी जाती है. नित्य सुबह और शाम पूजा के समय के इसमें पानी डाला जाता है. सावन महीने की पहली तारीख को टोकरी में उपजी अनाज की हरी पत्तियों को काटा जाता है और सर्वप्रथम अपने ईष्ट को चढ़ाने के बाद घर के बड़े लोग इन पत्तियों को अपने परिवार के सदस्यों के पैरों से लेकर कानों तक हरेला को पूजते हैं और उसके बाद इसकी पत्तियों को कानों में ईष्ट के आशीर्वाद कर तौर पर रखा जाता है. इस पूरी प्रक्रिया को हरेला पूजना कहा जाता है. हरेला पर बुजुर्ग अपने से छोटों को जी रया जागी रया का आशीष वचन देते हैं. इनको कुमाउनी आशीर्वचन भी कहा जाता है. इस दिन किसी अंकुरित अनाज पर या सबूत अनाज की प्राण प्रतिष्ठा करके उसे अपने कुल देवताओं को चढ़ा कर, रिश्ते में अपने से छोटे लोगों को आशीष के रुप चढ़ाते हैं, उस समय ये कुमाउनी आशीर्वचन गाये जाते है या आशीष वचन बोले जाते हैं। यही हमारी संस्कृति है, यही हमारी परंपरा है, और लोगों के दिलों में बसा प्रेम है. इसलिए तो लोग कहते हैं ” जब तक हिमालय में बर्फ रहेगी,और जब तक गंगा जी में पानी रहेगा, अन्तन वर्षो तक तुमसे मुलाकात होती रहे ,ऐसी हमारी कामना है. “

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